Gavri Dance of Mewar's Bhil Tribe: A Spectacle of Devotion and Tradition
गवरी नृत्य
परिचय:- गवरी नृत्य राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र में भील जनजाति द्वारा किया जाने वाला एक नाटक नृत्यानुष्ठान है, जो देवताओ को प्रसन्न करने के हेतु पुरुषों द्वारा एक गोलाकार समूह में किया जाता है । गवरी शब्द से तात्पर्य भगवान शिव जी की पत्नि - माता पार्वती के गौरजा नाम से हैं, भील जनजाति के लोग भगवान शिव के परम भक्त माने गए हैं और ये लोग भगवान शिव जी को अपना आराध्य देव मानते हैं जिनकी आराधना में ही भील जनजाति के आदिवासी लोग गवरी नृत्य की प्रस्तुति देते हैं ।
इस नृत्य में शिव को पुरिया भी कहा जाता हैं तथा गवरी में अभिनीत किये जाने वाले दृश्यों को 'खेल', 'भाव' या मेवाड़ी भाषा में 'सांग' भी कहा जाता है ।यह नृत्य रक्षा बंधन के ठीक अगले दिन से शुरू होकर सवा महीने तक किया जाता हैं जिसके अंतर्गत भील जनजाति की संस्कृति की झलकियां खास होती हैं । इस नृत्य को थाल और मांदल की सहायता से किया जाता हैं जिसके कारण इस नृत्य को राई नृत्य भी कहा जाता हैं । राजस्थान में यह नृत्य मुख्यतः डूंगरपुर, प्रतापगढ़, बांसवाड़ा, सिरोही और उदयपुर में किया जाता है ।
गवरी नृत्य कौन करता है ?
गवरी नृत्य राजस्थान में रहने वाले भील समुदाय के पुरुषों द्वारा अपने आराध्य देव शिवजी और उनकी पत्नि माँ गौरा के सम्मान में एक गोलाकार समूह में किया जाता हैं । यह नृत्य केवल पुरुषों द्वारा ही किया जाता हैं अर्थात इस नृत्य में महिला का किरदार भी एक पुरुष के द्वारा ही निभाया जाता है ।
गवरी नृत्य कहां का प्रसिद्ध हैं ?
वैसे तो राजस्थान का प्रसिद्ध लोकनृत्य घूमर हैं । इसके अलावा भी यहां पर कई नृत्य किए जाते हैं । मुख्यतः भील जनजाति के द्वारा किया जाने वाला गवरी नृत्य भी एक प्रसिद्ध नृत्य माना जाता हैं जो राजस्थान में मेवाड़ क्षेत्र बाडमेर के कनाना व लखेटा का प्रसिद्ध हैं । राजस्थान में भील समुदाय का गवरी नृत्य डूंगरपुर, राजसमंद, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़, सिरोही तथा उदयपुर आदि जिलों में मुख्य रूप से किया जाता हैं।
गवरी नृत्य में किसकी पूजा होती है ?
राजस्थान में भील जनजाति के द्वारा किया जाने वाला गवरी नृत्य का उद्देश्य न केवल एक मनोरंजन है बल्कि मुख्य रूप से यह एक धार्मिक प्रवृत्ति तथा धार्मिक का प्रदर्शन है जो कि भगवान शिव और मां पार्वती (गौरा) के प्रति इस समुदाय की आराधना करते हुए लोगों में बीमारी, गरीबी तथा अकाल से सुरक्षा की प्रार्थना की जाती हैं । स्पष्टतया इस नृत्य के द्वारा माता गौरजा (गौरा) की पूजा-आराधना की जाती हैं ।
गवरी नृत्य कौन सी जगह खेला जाता है ?
राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र में आदिवासी भील जनजाति के द्वारा इस नृत्य को बड़े ही धूमधाम से खेला जाता है । इसके अलावा राजस्थान में उदयपुर, राजसमंद, प्रतापगढ़, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, सिरोही तथा भीलवाड़ा आदि क्षेत्रों में इस नृत्य को भील जनजाति द्वारा किया जाता है । प्रमुखत: यह नृत्य राजस्थान के मेवाड क्षेत्र में किया जाता है क्योंकि यहां पर इस समुदाय के अधिक संख्या में लोग निवास करते हैं । गवरी नृत्य का उद्भव स्थल राजस्थान के उदयपुर क्षेत्र को माना गया है ।
गवरी नृत्य में कौनसे वाद्य यंत्र बजते हैं ?
राजस्थान में भील समुदाय के पुरुषों द्वारा सावन - भादो में किया जाने वाला गवरी नृत्य मेवाड़ क्षेत्र का प्रसिद्ध नृत्य हैं, जो थाली और मांदल की सहायता से किया जाता हैं जिसके कारण इस नृत्य को राई नृत्य भी कहा जाता हैं ।
गवरी नृत्य में कौन कौन से कलाकार होते हैं ?
गवरी नृत्य में भील संस्कृति की प्रमुखता देखी जा सकती हैं इसके अंतर्गत इस नृत्य में केवल पुरुष पात्र ही भाग ले सकते हैं । गवरी नृत्य का मूल कथानक शिव-भस्मासुर से संबंधित है । गवरी नृत्य में कुल 150 सदस्य होते हैं। इसीलिए गवरी नृत्य में दो मुख्य पात्र होते है - एक तो बूढ़िया (राईबूढ़िया) और दूसरा राईमाता । इस खेल में बूढ़िया को शिव तथा राईमाता को पार्वती माना जाता है ।
इसका मुख्य नायक बूढ़िया होता है जो शिव तथा भस्मासुर का प्रतीक माना जाता है । इसके अलावा भी इसकी जटा तथा भगवा पहनावा शिवजी का प्रतीक होता है,वहीं हाथ का कड़ा तथा मुखौटा भस्मासुर का द्योतक है। इस खेल में बूड़िया की वेशभूषा विशिष्ट होती है । इसके कमर में मोटे घुघरूओं की बंधी पट्टी, जांघिया तथा मुँह पर विचित्र कलात्मक मुखौटा, हाथ में लकड़ी का खांडा, आदि होता है। इसलिए इस समुदाय के लोग आजतक इन पात्रों की पूजा करते आये है ।
गवरी नृत्य पात्रों के प्रकार :-
1. देवता : हिंदू धर्म के अंतर्गत देवता आदर्श के प्रतीक माने जाते हैं । भील जनजाति के लोग सामान्यतः सावन - भादो में गौरी नृत्य का आयोजन करते हैं तथा गवरी नृत्य करके अपने आराध्य देव को प्रसन्न करके उनसे अपने जीवन को समृद्ध बनाने के लिए वरदान मांगते हैं।
2. मानव पात्र : गौरी शक्तिमान मानव पत्र के कई प्रकार देख सकते हैं जैसे पुरिया, राई, कुटकड़िया, कंजर-कंजरी, नट, शंकरिया, काना-गुजरी, फत्ता-फती, भोपा, कालबेलिया, खेतुड़ी, दानी, बंजारा - बंजारी, मीणा, आदि कई पात्र होते हैं।
3. दानव : दानव यानी कि राक्षस । गौरी नृत्य के अंतर्गत यह पत्र थोड़ा दुखद और परेशान करने वाले क्रूर चरित्र वाले डरावने पात्र होते हैं । उनकी वेशभूषा विशिष्ट होती है जिन जिसके अंतर्गत उनके सिर पर सिंह लगे होते हैं तथा शरीर पर काला रंग किया होता है । इस खेल के अंतर्गत इनकी उपस्थिति थोड़ी भयानक और अशुभ होती है । इन पात्रों में भियावड़ जैसे हटिया तथा खडलियो भूत आदि कुछ अलग-अलग प्रकार होते हैं ।
4. पशु-पात्र : 4. पशु-पात्र : गवरी नृत्य के अंतर्गत पशु पात्र भी एक बड़ा ही मनोरंजक पात्र है, इसके अंतर्गत शेर और सुअर तथा भालू आदि की मुख्य भूमिका निभाई जाती हैं ।
गवरी नृत्य कितने दिनों तक चलता है ?
गवरी नृत्य प्रतिवर्ष रक्षाबँधन के अगले दिन से शुरू होकर सवा महीने तक अर्थात 37-38 दिनों तक चलता है।
गवरी नृत्य में कौन कौन से खेल होते हैं ?
इस नृत्य नृत्य के दौरान मुख्यत: शिव-पार्वती का खेल, जोगी, लाखा बंजारा, गजानंद, काना - गुजरी आदि तरह के मुख्य खेल खेले जाते हैं ।
गवरी नृत्य के लिए क्या नियम होते हैं?
राजस्थान राज्य में हर वर्ग के लोगों में अपनी संस्कृति की गहराई देखी जा सकती हैं। वैसे ही भील जनजाति के इस प्रसिद्ध गवरी नृत्य के पीछे शिव और शक्ति की आराधना करने के साथ बहुत कड़े नियम भी पाले जाते हैं ।
तो आइए हम आपको इन नियमों के बारे में बताते हैं -
1. गवरी नृत्य का प्रस्तुतीकरण लगभग 40 दिन तक अर्थात सवा महीने तक चलता है जिसके अंतर्गत इस नृत्य में भाग लेने वाले कलाकारों को 40 दिन तक नहाए बिना रहना होता है।
2.गवरी नृत्य को मुख्य रूप से भील जनजाति के पुरुष वर्ग द्वारा ही प्रस्तुत किया जाता है, इसमें महिला वर्ग को कहीं भी शामिल नहीं किया जाता हैं अथवा महिला की भूमिका भी पुरुष पात्र द्वारा ही निभाई जाती है।
3. गवरी नृत्य में 150 कलाकार भाग लेते हैं और नृत्य के 40 दिन के कार्यकाल में इन्हें को नंगे पांव रहना होता है।
4.इन नियम के तहत भील समुदाय के लोग इस दौरान मदिरा-पान, नॉनवेज तथा मुख्या रूप से हरी सब्जी का सेवन भी नहीं करते हैं।
5.गवरी वृत को करने वाले लोग 40 दिनों तक बाहर स्थान या किसी मंदिर में ही रहते हैं, ये लोग नियमानुसार 40 दिनों तक अपने घर नही जाते हैं।
6.भील समुदाय में गवरी व्रत के नियमानुसार ये लोग घर से बाहर रहकर भी बिना बिस्तर जमीन पर सोते हैं।
7.भील जनजाति के गवरी नृत्य को 40 दिनों तक ये कलाकार आस - पास गांव में जाकर प्रस्तुति देते हुए व्रत करते हुए पूरे दिन में एक बार भोजन करते हैं।
गवरी नृत्य का समापन कैसे होता है?
गवरी नृत्य को सवा महीने तक अर्थात 40 दिनों तक बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है। इस दौरान भील समुदाय के लोग 40 दिनों तक शिव भक्ति करते हैं तथा मां गौरजा की आराधना करते हुए इसे गवरी नृत्य को गांव-गांव जाकर मंदिर मंचन पर दर्शकों के बीच प्रस्तुत करते हैं। तत्पश्चात समापन के दिन माता गौरजा अर्थात पार्वती माता की प्रतिमा को जल में विसर्जित करते है। उस दिन को "वलावण" कहते हैं। जिस दिन प्रतिमा बनाई जाती है उसे दिन को "गड़ावन" का दिन कहा जाता है। 40 दिन के इस गवरी नृत्य के समापन के 1 दिन पूर्व की संध्या को भील समुदाय के लोग बड़े ही धूमधाम से तथा नृत्य करते हुए गांव के कुम्हार के घर जाकर विधि विधान के साथ माता की प्रतिमा की पूजा अर्चना करके इसे मिट्टी के हाथी पर विराजित कर पूरे गांव में शोभायात्रा निकलते हैं।
इस शोभायात्रा के दौरान गांव में कई जाति के लोग शामिल होते हैं और भील समाज द्वारा खेल - नाट्य तथा नृत्य की प्रस्तुति का आनंद लाभ लेते हैं। इस शोभा यात्रा के दौरान कई प्रकार के नृत्य होते हैं परंतु इसका मुख्य आकर्षण हाथी का नृत्य होता हैं। इस दिन भील समुदाय के लोगों में बड़ा ही हर्षोल्लास देखा जा सकता है तथा इस शोभा यात्रा को आगे बढाते हुए एक जल स्रोत के पास पहुंचते हैं और यहां पर नम आंखों के साथ माता पार्वती की प्रतिमा का जल में विसर्जन करते हैं।
गवरी नृत्य की क्या कथा है?
गवरी नृत्य व्रत कथा भगवान शिव और एक दानव भस्मासुर से जुड़ी हुई है उसके तहत सामान्य मान्यताओं के अनुसार बताया गया है कि भस्मासुर नाम का राक्षस भगवान् शिव का बड़ा ही भक्त था और वह हमेशा शिव की भक्ति करता था। इस पर एक दिन भगवान शिव उसके सामने प्रकट हुए और उसे वरदान मांगने को कहा तब भस्मासुर दानव ने भगवान् शिव से वरदान माँगा कि यदि वह किसी के सर को छुए तो वह तुरंत ही भस्म हो जाए इस पर भगवान शिव भोलेनाथ होने के कारण उसे वरदान दे दिया। भस्मासुर भगवान शिव की पत्नी पार्वती को अपनी पत्नी के रूप में चाहता था। इसलिए वह ऐसा वरदान मांग भगवान शिव को ही भस्म कर के पार्वती को पाना चाहता था।
परंतु यह भगवान शिव को बाद में पता चला तो भगवान् अपने ही वरदान का अनादर न होने देने से पारवती को भस्मासुर से दूर-दूर छिपाने लग गए। जब भस्मासुर खुद भगवान शिव को जलाकर पार्वती को पाने की कोशिश करने लगा यह सब भगवान विष्णु देख रहे थे, तब भगवान विष्णु ने खुद को मोहिनी सी अप्सरा के रूप में बदल दिया और भस्मासुर के सामने आ गए तो मोहिनी के सुंदर रूप को देखकर भस्मासुर आकर्षित हो गया और पार्वती को भूल मोहिनी को पाना चाहा। तब विष्णु का बदला रूप मोहिनी भी उनको बहलाने लगी और भस्मासुर को मोहिनी अपने साथ नृत्य करवाने लगी इसी दौरान भस्मासुर का हाथ नृत्य करते हुए खुद के सिर पर ही लग गया और वह खुद ही तुरंत भस्म हो गया। इस घटना को तथा अपने आराध्य के प्रति सच्ची श्रद्धा से जुड़े हुए अतीत को आज भी भील समुदाय के लोग गवरी नाट्य के दौरान इस कहानी को दर्शकों के समक्ष प्रस्तुत करते हैं।
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